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उपन्यास-गोदान-मुंशी प्रेमचंद



दिन चढ़ने लगा। रात को कुछ न खाया था। भूख मालूम होने लगी। पाँव लड़खड़ाने लगे। कहीं बैठकर दम लेने की इच्छा होती थी। बिना कुछ पेट में डाले वह अब नहीं चल सकता; लेकिन पास एक पैसा भी नहीं है। सड़क के किनारे झुड़-बेरियों के झाड़ थे। उसने थोड़े से बेर तोड़ लिये और उदर को बहलाता हुआ चला। एक गाँव में गुड़ पकने की सुगन्ध आयी। अब मन न माना। कोल्हाड़ में जाकर लोटा-डोर माँगा और पानी भर कर चुल्लू से पीने बैठा कि एक किसान ने कहा -- अरे भाई, क्या निराला ही पानी पियोगे? थोड़ा-सा मीठा खा लो। अबकी और चला लें कोल्हू और बना लें खाँड़। अगले साल तक मिल तैयार हो जायगी। सारी ऊख खड़ी बिक जायगी। गुड़ और खाँड़ के भाव चीनी मिलेगी, तो हमारा गुड़ कौन लेगा? उसने एक कटोरे में गुड़ की कई पिण्डियाँ लाकर दीं। गोबर ने गुड़ खाया, पानी पिया। तमाखू तो पीते होगे? गोबर ने बहाना किया। अभी चिलम नहीं पीता। बुड्ढे ने प्रसन्न होकर कहा -- बड़ा अच्छा करते हो भैया! बुरा रोग है। एक बेर पकड़ ले, तो ज़िन्दगी भर नहीं छोड़ता। इंजन को कोयला-पानी भी मिल गया, चाल तेज़ हुई। जाड़े के दिन, न जाने कब दोपहर हो गया। एक जगह देखा, एक युवती एक वृक्ष के नीचे पति से सत्याग्रह किये बैठी थी। पति सामने खड़ा उसे मना रहा था। दो-चार राहगीर तमाशा देखने खड़े हो गये थे। गोबर भी खड़ा हो गया। मानलीला से रोचक और कौन जीवन-नाटक होगा? युवती ने पति की ओर घूरकर कहा -- मैं न जाऊँगी, न जाऊँगी, न जाऊँगी।

पुरुष ने ये जैसे अल्टिमेटम दिया -- न जायगी?
'न जाऊँगी। '
'न जायगी? '
'न जाऊँगी। '
पुरुष ने उसके केश पकड़कर घसीटना शुरू किया। युवती भूमि पर लोट गयी। पुरुष ने हारकर कहा -- मैं फिर कहता हूँ, उठकर चल। स्त्री ने उसी दृढ़ता से कहा -- मैं तेरे घर सात जनम न जाऊँगी, बोटी-बोटी काट डाल।
'मैं तेरा गला काट लूँगा। '
'तो फाँसी पाओगे। '
पुरुष ने उसके केश छोड़ दिये और सिर पर हाथ रखकर बैठ गया। पुरुषत्व अपनी चरम सीमा तक पहुँच गया। उसके आगे अब उसका कोई बस नहीं है। एक क्षण में वह फिर खड़ा हुआ और परास्त होकर बोला -- आख़िर तू क्या चाहती है? युवती भी उठ बैठी, और निश्चल भाव से बोली -- मैं यही चाहती हूँ, तू मुझे छोड़ दे।
'कुछ मुँह से कहेगी, क्या बात हुई? '
'मेरे भाई-बाप को कोई क्यों गाली दे? '
'किसने गाली दी, तेरे भाई-बाप को? '
'जाकर अपने घर में पूछ! '
'चलेगी तभी तो पूछूँगा? '
'तू क्या पूछेगा? कुछ दम भी है। जाकर अम्माँ के आँचल में मुँह ढाँककर सो। वह तेरी माँ होगी। मेरी कोई नहीं है। तू उसकी गालियाँ सुन। मैं क्यों सुनूँ? एक रोटी खाती हूँ, तो चार रोटी का काम करती हूँ। क्यों किसी की धौंस सहूँ? मैं तेरा एक पीतल का छल्ला भी तो नहीं जानती! '
राहगीरों को इस कलह में अभिनय का आनन्द आ रहा था; मगर उसके जल्द समाप्त होने की कोई आशा न थी। मंज़िल खोटी होती थी। एक-एक करके लोग खिसकने लगे। गोबर को पुरुष की निर्दयता बुरी लग रही थी। भीड़ के सामने तो कुछ न कह सकता था। मैदान ख़ाली हुआ, तो बोला -- भाई मर्द और औरत के बीच में बोलना तो न चाहिए, मगर इतनी बेदरदी भी अच्छी नहीं होती।
पुरुष ने कौड़ी की-सी आँखें निकालकर कहा -- तुम कौन हो?
गोबर ने निःशंक भाव से कहा -- मैं कोई हूँ; लेकिन अनुचित बात देखकर सभी को बुरा लगता है।
पुरुष ने सिर हिलाकर कहा -- मालूम होता है, अभी मेहरिया नहीं आयी, तभी इतना दर्द है!
'मेहरिया आयेगी, तो भी उसके झोंटे पकड़कर न खीचूँगा। '
'अच्छा तो अपनी राह लो। मेरी औरत है, मैं उसे मारूँगा, काटूँगा। तुम कौन होते हो बोलने-वाले! चले जाओ सीधें से, यहाँ मत खड़े हो। '
गोबर का गर्म ख़ून और गर्म हो गया। वह क्यों चला जाय। सड़क सरकार की है। किसी के बाप की नहीं है। वह जब तक चाहे वहाँ खड़ा रह सकता है। वहाँ से उसे हटाने का किसी को अधिकार नहीं है। पुरुष ने ओठ चबाकर कहा -- तो तुम न जाओगे? आऊँ?
गोबर ने अँगोछा कमर में बाँध लिया और समर के लिए तैयार होकर बोला -- तुम आओ या न आओ। मैं तो तभी जाऊँगा, जब मेरी इच्छा होगी।
'तो मालूम होता है, हाथ पैर तुड़वा के जाओगे। '
'यह कौन जानता है, किसके हाथ-पाँव टूटेंगे। '
तो तुम न जाओगे? '
'ना। '

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